वर्ण व्यवस्था और जाति-भेद ही हिन्दु धर्म :
वर्ण - भेद और जाति -भेद हिंदू धर्म की रीढ़ है और धर्म एक संस्था है। अतः वर्ण
-व्यवस्था फुंक मारकर उड़ाई नही जा सकती। मनुस्मृति में चातुवर्ण का विधान है, उसी को बढ़ाने के लिए सारे हिंदु शास्त्रों की रचना हुई।
इसके अनुसार शूद्रों का काम सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय-वैश्यों की सेवा करना है। अन्याय और असमानता पर आधारित
हिंदु धर्म में रहकर हम अपनी उन्नति नही कर सकते।
वर्ण व्यवस्था मनुष्य -मात्र की उन्नति के लिए महाघातक है। मैं एक बार गाँधी जी से मिलने गया। गाँधी जी ने मुझसे कहां कि वे चातुर्वर्ण को मानते है? मैने अपनी चार अंगुलियों को एक के उपर एक करके उनसे पुछा - " यह चातुवर्ण किधर से चलता है? इसका आदि और अंत कहां है ? गांधीजी मेरी बात का कोई जवाब न दे सकें। हिंदुओँ के पास इसका कोई उत्तर है भी नही। इसी धर्म के बदौलत कई बार हमारा देश गुलाम हुआ। युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है। क्षत्रिय मर गये कि सारा देश मर गया।
यदि हम लोगों को शस्त्र धारण करने का अधिकार होता, तो भूतकाल में इस महान देश पर आक्रमण करके कोई इसे जीत न सकता था। युरोप सन् 1939-45 का महायुद्ध अनिवार्य फौजी भर्ती से जीता गया। वहां किसी जाति विशेष को इसका श्रेय नहीं है, मेरे कथन में तिलमात्र भी झूठ नही है कि हिंदू-धर्म की रचना केवल कुछ तथाकथित सवर्णो के स्वार्थ के लिए हुई, जो सदियों से बेजा लाभ उठा रहे है, शूद्रों की कोई भलाई इससे नही हुई।
ब्राम्हण की औरत गर्भवती हुई कि उसका ध्यान हाईकोर्ट की ओर जाता है किं वहाँ जज की जगह खाली है या नही, जबकी हमारी औरत गर्भवती होने पर यह ध्यान करती है कि म्युनसिपालिटी में झाडू लगानेवाले की जगह खाली है या नही हमारी यह दुर्गति हिंदु-व्यवस्था के कारण हुई। इस में रहकर हमारी क्या भलाई हो सकती है? इसे तो त्याग देने मे ही हमारा कल्याण है।
जय भीम जय भारत