दिपावली की तर्क भरी कहानी।
दिपावली
आप सभी देशवासियों को दिवाली की हार्दिक हार्दिक शुभकामनायें।
क्यों आपको पता है कि आप ओर हम दिवाली क्यों मनाते हैं?
मुझे पता है, आप यही कहोगे, श्री राम जी के अयोध्या आने की खुशी में दिवाली मनायी जाती है।
परन्तु इस विषय में दो तर्क है,
पहला तर्क-
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ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो 'दीपावली' को 'दीपदानोत्सव' नाम से जाना जाता था और यह वस्तुतः एक बौद्ध पर्व है जिसका प्राचीनतम वर्णन तृतीय शती ईसवी के उत्तर भारतीय बौद्ध ग्रन्थ 'अशोकावदान' तथा पांचवीं शती ईस्वी के सिंहली बौद्ध ग्रन्थ 'महावंस' में प्राप्त होता है। सांतवी शती में सम्राट हर्षवर्धन ने अपनी नृत्यनाटिका 'नागानन्द' में इस पर्व को 'दीपप्रतिपदोत्सव' कहा है। कालान्तर में इस पर्व का वर्णन पूर्णतः परिवर्तित रूप में 'पद्म पुराण' तथा 'स्कन्द पुराण' में प्राप्त होता है जो कि सातवीं से बारहवीं शती ईसवी के मध्य की कृतियाँ हैं। तृतीय शती ईसा पूर्व की सिंहली बौध्द 'अट्ठकथाओं' पर आधारित 'महावंस' पांचवीं शती ईस्वी में भिक्खु महाथेर महानाम द्वारा रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके अनुसार बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद तथागत बुद्ध अपने पिता शुद्धोदन के आग्रह पर पहली बार कार्तिक अमावस्या के दिन कपिलवस्तु पधारे थे। कपिलवस्तु नगरवासी अपने प्रिय राजकुमार, जो अब बुद्धत्व प्राप्त करके 'सम्यक सम्बुद्ध' बन चुका था, को देख भावविभोर हो उठे। सभी ने बुद्ध से कल्याणकारी धम्म के मार्गों को जाना तथा बुद्धा की शरण में आ गए। रात्रि को बुद्ध के स्वागत में अमावस्या-रुपी अज्ञान के घनघोर अन्धकार तो प्रदीप-रुपी धम्म के प्रकाश से नष्ट करनें के सांकेतिक उपक्रम में नगरवासियों नें कपिलवस्तु को दीपों से सजाया था। किन्तु 'दीपदानोत्सव' को विधिवत रूप से प्रतिवर्ष मनाना 258 ईसा पूर्व से प्रारम्भ हुआ जब 'देवनामप्रिय प्रियदर्शी' सम्राट अशोक महान ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य, जो कि भारत के अलावा उसके बाहर वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया तक विस्तृत था, में बनवाए गए चौरासी हज़ार विहार, स्तूप और चैत्यों को दीपमाला एवं पुष्पमाला से अलंकृत करवाकर उनकी पूजा की थी। 'थेरगाथा' के अनुसार तथागत बुद्ध ने अपने जीवनकाल में बयासी हज़ार उपदेश दिये थे। अन्य दो हजार उपदेश बुद्ध के शिष्यों द्वारा बुद्ध के उपदेशों की व्याख्या स्वरुप दिए गए थे। इस प्रकार भिक्खु आनंद द्वारा संकलित प्रारम्भिक 'धम्मपिटक' (जो कालान्तर में 'सुत्त' तथा 'अभिधम्म' में विभाजित हुई) में धम्मसुत्तों की संख्या चौरासी हज़ार थी। अशोक महान ने उन्हीं चौरासी हज़ार बुद्धवचनॉ के प्रतिक रूप में चौरासी हज़ार विहार, स्तूप और चैत्यों का निर्माण करवाया था। पाटलिपुत्र का 'अशोकाराम' उन्होंने स्वयं अपने निर्देशन में बनवाया था। इस ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि 'दिव्यावदान' नामक ग्रन्थ के उपग्रन्थ 'अशोकावदान' से भी हो जाती है जो कि मथुरा के भिक्षुओं द्वारा द्वितीय शती ईस्वी में लिखित रचना है और जिसे तृतीय शती ईस्वी में फाहियान ने चीनी भाषा में अनूदित किया था। पूर्व मध्यकाल में हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान के साथ इस बौद्ध पर्व में मूल तथ्य के स्थान पर अनेक नवीन कथानक जोड़कर इसे हिन्दू धर्म में सम्मिलित कर लिया गया तथा शीघ्र ही यह हिन्दुओं का प्रचलित त्यौहार बन गया।
दुसरा तर्क-
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अगर हम बाल्मीकि रामायण का अध्ययन करे तो उसमे ऐसा कंही भी नही लिखा है कि राम के आने की ख़ुशी में अयोध्या वासियों ने दीप जलाये थे। बाल्मीकि रामायण में जो वर्णन है वो इस प्रकार है-राम अयोध्या वापसी दिन के समय आये थे। नगर के रास्तों को गंध और पुष्पो से सजायाथा। नगर में चहल-पहल का माहोल था। केवल इतना ही लिखा है।इससे सिद्ध होता है कि दीपावली का सम्बन्ध रामायण के राम(पुष्यमित्र शुंग) से नही है।ब्राह्मणों ने हमारा इतिहास मिटाने और पैसा कमाने के लिए आर्य (ब्राह्मण)विष्णु की पत्नी को धन की देवी बताकर लक्ष्मी की मूर्तीपूजा करवाई। °°°°°°आज मूलनिवासी समाज ब्राह्मणों के पाखण्ड में इस तरह जकड़ा हुआ है कि उसके सोचने समझने की क्षमता समाप्त हो गयी है और अपने पूर्वजो के हत्यारो को देवी-देवता के रूप में पूज रहा हैं।अपने देश में लोग मानते हैं कि लक्ष्मी की सवारी उल्लू है और वो उस पर बैठ कर दीवाली की रात घर पर आती हैं इसीलिए उनकी पूजा की जाती है। अब ये बात और है कि उनके साथ काल्पनिक देवता गणेश की भी पूजा होती है।
ये तो मूलनिवासियों की ही सोचना है कि लक्षमी और गणेश का क्या रिश्ता है…???
____लेकिन मान लिया लक्ष्मी रात में ही आएगी तो उजाला देखकर उल्लू नहीं आएगा, ऊपर से हम पटाखे भी दगाते है तो आवाज सुनकर तुरंत भाग जायेगा। आज तक गरीब सबसे ज्यादा दीपक जलाते है !
पर क्या लक्ष्मी आई और जब नहीं आई तो कहाँ गई ?
क्या ये लक्ष्मी केवल वैश्य और ब्राह्मणों के घर गई ?
फिर हमारे घर क्या आया ?
डिटवा में सुभह 3 -4 बजे सूप पीटकर दरिद्र भगाते है और बोलते है "इशुर आये दरीद्दुर गए"।
प्रश्न ये है की दरिद्र कब आया ?
साथियो ……
दरिद्र दीपावली में ही आया जब हमने अपना सब कुछ खर्च करके लूटा दिया।अतः बुद्धिमानी इसमे है कि हम अपना इतिहास जाने और उसको माने।
दिवाली अगर वास्तव में राम के समय से मनाते हैं तो सतयुग- पहला तो युग हैं । इस युग के बाद द्वापार युग, त्रेता युग, ओर कलयुग। आते हैं।
दिवाली क्रष्ण ने क्यों नही मनायी, हमने अभी तक ऐसा नहीं पड़ा। ओर नही किसी कथा वाचक ने बताया।
इसके बाद द्वापार यूग, त्रेता युग इसमें दिवाली का कोई उल्लेख नहीं है। क्यों इस में दिवाली को नही मनाते थे?
अपने मार्गदर्शन संयम बने।
जय भीम जय भारत । अत्यदिपो भव:।